अर्थ: जो व्यक्ति योग से रहित होता है, उसमें निर्णय लेने की बुद्धि नहीं होती और उसके मन में सच्ची भावना भी नहीं होती। ऐसे व्यक्ति को शांति नहीं मिलती और बिना शांति के सुख की प्राप्ति कैसे संभव है?
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।
अर्थ: जो व्यक्ति सभी इच्छाओं को त्यागकर, ममता और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, वही सच्ची शांति प्राप्त करता है।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।
अर्थ: कोई भी व्यक्ति एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। सभी प्राणी प्रकृति के गुणों के अनुसार कर्म करने के लिए बाध्य होते हैं।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।
अर्थ: अपने धर्म के अनुसार कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं हो सकेगा।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।
अर्थ: श्रेष्ठ व्यक्ति जैसा आचरण करता है, वैसे ही अन्य लोग भी आचरण करते हैं। श्रेष्ठ व्यक्ति जिस कर्म को करता है, उसी को आदर्श मानकर लोग उसका अनुसरण करते हैं।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
अर्थ: ज्ञानी व्यक्ति को चाहिए कि वह कर्म में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करे, बल्कि स्वयं योगयुक्त होकर सभी कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ, उनसे भी वैसे ही करावे।
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।।
हे अर्जुन, जो व्यक्ति मुझे जिस प्रकार भजता है, उसी के अनुरूप मैं उसे फल प्रदान करता हूं। सभी लोग सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
अर्थ: हे अर्जुन, कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फलों पर नहीं। इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो। कर्तव्य-कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, फल में कभी नहीं। अतः तुम कर्मफल का हेतु मत बनो और तुम्हारी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।