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Caste Census in India: 1931 के बाद अब फिर होगी जातिगत गिनती, जानिए इसके फायदे और चुनौतियां

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Caste Census in India: भारत में जातिगत जनगणना की नई पहल, जानिए इसके फायदे और चुनौतियां। सरकार ने आधिकारिक तौर पर इस दिशा में कदम उठाया है। सही आंकड़े कैसे बदल सकते हैं राजनीतिक और सामाजिक दिशा।

Rupali kumawat
Written by: Rupali kumawat - Sub Editor
3 Min Read

Caste Census in India: भारत में जाति आधारित जनगणना (Caste Census) एक बार फिर चर्चा में है। केंद्र सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ाया है, जिसके बाद राजनीतिक और सामाजिक बहस तेज हो गई है। लेकिन आखिर यह जाति जनगणना क्या है? इसका मकसद क्या है? और यह देश के लिए क्यों जरूरी मानी जा रही है? आइए समझते हैं।

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जाति जनगणना क्या है?

जाति जनगणना का मतलब है देश की आबादी को उनकी जाति के आधार पर गिनना और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आकलन करना। अभी तक सिर्फ अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित ज tribe (ST) की गिनती होती रही है, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को इसमें शामिल नहीं किया गया। जाति जनगणना में सभी वर्गों—सवर्ण, ओबीसी, एससी, एसटी और अन्य—को शामिल किया जाएगा।

इतिहास में कब हुई थी जाति जनगणना?

आजादी से पहले 1931 में अंग्रेजों ने आखिरी बार जाति के आधार पर जनगणना कराई थी। उसके बाद 1941 में जनगणना तो हुई, लेकिन जाति के आंकड़े नहीं जुटाए गए। 1951 में आजाद भारत की पहली जनगणना हुई, पर इसमें सिर्फ एससी और एसटी को ही शामिल किया गया। ओबीसी को लेकर कोई सटीक आंकड़े नहीं मिले।

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2011 में यूपीए सरकार ने जाति जनगणना कराने की कोशिश की, लेकिन यह पूरी तरह सफल नहीं हो पाई। अब एक बार फिर इसकी मांग जोर पकड़ रही है।

जाति जनगणना की जरूरत क्यों?

  1. सही आंकड़ों का अभाव:
    मंडल आयोग (1990) ने ओबीसी की आबादी 52% बताई थी, लेकिन यह अनुमान 1931 की जनगणना पर आधारित था। आज के समय में ओबीसी की सही संख्या पता करना जरूरी है।
  2. सरकारी योजनाओं का सही लाभ:
    अगर पिछड़े वर्गों की सही संख्या और उनकी आर्थिक स्थिति पता होगी, तो सरकार उनके लिए बेहतर योजनाएं बना सकेगी।
  3. आरक्षण पर बहस:
    सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50% तय की है। अगर ओबीसी की आबादी ज्यादा निकली, तो आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग उठ सकती है।
  4. राजनीतिक समीकरण:
    कई दल ओबीसी वोटों पर निर्भर हैं। जाति जनगणना के बाद नए राजनीतिक समीकरण बन सकते हैं।

क्या हैं चुनौतियां?

  • सामाजिक विभाजन का डर: कुछ लोगों को लगता है कि इससे समाज में जातिगत तनाव बढ़ेगा।
  • आरक्षण की मांगें बढ़ेंगी: नए आंकड़ों के आधार पर अलग-अलग समूह आरक्षण की मांग कर सकते हैं।
  • डाटा का सही इस्तेमाल: सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि यह जानकारी सामाजिक न्याय के लिए इस्तेमाल हो, न कि राजनीतिक फायदे के लिए।

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Rupali kumawat
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रुपाली कुमावत पिछले कई वर्षों से लेखन क्षेत्र में कार्यरत हैं। उनको हिंदी कविताएं, कहानियां लिखने के अलावा ब्रेकिंग, लेटेस्ट व ट्रेंडिंग न्यूज स्टोरी कवर करने में रुचि हैं। उन्होंने राजस्थान यूनिवर्सिटी से BADM में M.Com किया हैं एवं पंडित दीनदयाल शेखावाटी यूनिवर्सिटी से family law में LL.M किया हैं। रुपाली कुमावत के लेख Focus her life, (राजस्थान पत्रिका), सीकर पत्रिका, https://foucs24news.com, खबर लाइव पटना जैसे मीडिया संस्थानों में छप चुके हैं। फिलहाल रुपाली कुमावत 89.6 एफएम सीकर में बतौर न्यूज कंटेंट राइटर अपनी सेवाएं दे रही हैं।
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